The thinking of the voters of Haryana will take the state forward

Editorial:हरियाणा के मतदाता की सोच ही ले जाएगी प्रदेश को आगे

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The thinking of the voters of Haryana will take the state forward

The thinking of the voters of Haryana will take the state forward: हरियाणा में विधानसभा चुनाव के दौरान वह घड़ी आ गई है, जब जनता मतदान करेगी और फिर आठ अक्तूबर को परिणाम आएगा। वीरवार की शाम छह बजे चुनाव प्रचार बंद हो गया। यहां 5 अक्तूबर को मतदान होना है। रा’य में इस बार सत्ताधारी भाजपा और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर है, लेकिन जजपा, आप और इनेलो की ओर से भी कड़ी चुनौती दी जा रही है। रा’य में सवा महीने के करीब चले चुनाव प्रचार के दौरान अपेक्षाकृत शांति रही और कहीं भी हिंसा जैसी घटनाएं सामने नहीं आई हैं।

हालांकि रा’य पुलिस की ओर से किए गए दावे अनुसार करोड़ों रुपये की अवैध नकदी, ’वेलरी और नशीले पदार्थों की खेप इस दौरान जब्त की गई। निश्चित रूप से इनका इस्तेमाल चुनाव में होना था, वैसे इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव प्रचार में सभी राजनीतिक दलों ने अपार पैसा इस्तेमाल किया है। अब चुनाव आयोग को खर्च का जो ब्योरा सौंपा जाएगा, उसमें चाहे खूब कांट-छांट की जाए लेकिन यह सही है कि राजनीतिक दलों के लिए इस बार के चुनाव उनके वर्चस्व से जुड़े हुए हैं। अनेक राजनीतिक दलों ने इसे अपनी नाक का सवाल बना लिया और जोकि स्वाभाविक भी है।

कुछ माह पहले लोकसभा चुनाव का महाभारत देख चुके प्रदेश के लोग अब एक और चुनावी जंग के साक्षी बनने जा रहे हैं। इस बार के चुनाव में पक्ष-विपक्ष के महारथियों ने जमकर शब्दों के बाण चलाए हैं। हालांकि ऐसा पहली बार सुनने को मिला है, जब जनता ने उनसे वोट मांगने आए उम्मीदवारों से विकास को लेकर तीखे सवाल पूछे हैं। इन उम्मीदवारों ने यही सोचा होगा कि वे पूर्व की तरह गांव-देहात में जाएंगे और लोग उनकी आवभगत करते हुए उन्हें वोट देने का वादा करेंगे। हालांकि कई जगह तो ग्रामीणों ने उम्मीदवारों को गली में ठहरे उसी गंदे पानी में खड़ा कर दिया, जिसका समाधान बरसों से नहीं हो सका है।

निश्चित रूप से जनप्रतिनियों का काम जनता की सेवा करना है और उनकी हर समस्या का समाधान करना है, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। पांच साल में एक साल मतदाता के दरवाजे पर अलख जगाने वाले नेता सत्ता में आकर या न आकर भी अगले पांच साल के लिए जनता को भूल जाते हैं। फिर तो बारी जनता की होती है, जोकि इन प्रतिनिधियों के दर पर हाथ जोड़े और कमोबेश पैरों में गिरने की स्थिति में उनके दर पर होती है। यह कितनी निरंकुशता की स्थिति होती है कि जनप्रतिनिधि विधानसभा या संसद में पहुंचने के बाद इतनी मजबूत स्थिति में पहुंच जाता है कि फिर उसे अपने हलके व क्षेत्र की पहचान तक नहीं रहती।

हरियाणा में साल 2019 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान जैसे राजनीतिक हालात थे, वे पांच साल पूरे कर चुकी भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण थे। उस समय तीन ही प्रमुख दल रा’य में चुनावी मैदान में थे। लेकिन फिर एकाएक इनेलो दो फाड़ हो गई और उससे अलग होकर बनी जननायक जनता पार्टी। इसी जजपा की वजह से भाजपा स्पष्ट बहुमत से पीछे रह गई वहीं कांग्रेस को भी नुकसान झेलना पड़ा था। हालांकि बाद में भाजपा ने जजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई और अंतिम समय में उससे किनारा कर लिया। उसी जजपा ने इस बार यूपी के सांसद चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी ने गठबंधन करते हुए चुनाव लड़ा है। आजाद समाज पार्टी दलित मतदाताओं की पैरोकार होने का दावा कर रही है और इसी के बूते हरियाणा में भी दलित वोटों को लुभाने के लिए दोनों पार्टियों ने जमकर प्रचार किया है।

हालांकि इस बार कांग्रेस ने अपने आप में नई ऊर्जा के साथ प्रदेश में पेश किया है। साल 2019 के विधानसभा चुनाव से अलग पार्टी ने इस बार रणनीति अपनाई है। लोकसभा चुनाव में पांच सीटों पर जीत हासिल होने के बाद उसका हौसला बहुत बढ़ा है। इसकी तस्वीर इस चुनाव में देखने को मिल रही है। यह भी सुखद आश्चर्य है कि कांग्रेस के बड़े नेताओं ने इस बार हरियाणा पर पर्याप्त फोकस किया और राहुल गांधी तो लगातार दो दिन प्रदेश में रहे और रोड शो एवं रैलियों के लिए कांग्रेस उम्मीदवारों को जीताने का आग्रह किया। वास्तव में हरियाणा की जनता को अगले एक दिन खूब मंथन करके यह विचारणा है कि आखिर उसे किसकी तरफ जाना है। चाहे वह परिणाम किसकी ओर भी लाए लेकिन यह जरूरी है कि जीत हरियाणा की होनी चाहिए। प्रदेश को वास्तविक तरक्की चाहिए, इसके साथ ढोंग और प्रपंच रचने वाले न जीत पाएं। हरियाणा की भूमि को इस बार बताना है कि उसकी सोच आया राम-गया राम से बहुत आगे निकल चुकी है और वह स्थायी और निरंतर विकास को प्राथमिकता देती है। 

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